Monday 11 November 2013

POWER OF OM



"" मंत्र की महिमा

अक्षरों में सबसे बड़ा अक्षर "ओउम" () कहा गया है। अक्षर का अर्थ है - जिसका कभी क्षरण अथवा विनाश न हो । माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सदा ''की ध्वनी निसृत होती रहती है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक 'शून्य' की तरह हैं जिसमें बहुत सारी शक्तियाँ विद्यमान हैं । ये शक्तियाँ किसी न किसी रुप में हमारे शरीर को तथा हमारे मन को प्रभावित करती हैं । शास्त्रों से विदित है " यत ब्रह्माण्डे तत पिण्डे " अर्थात जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में है, वह हमारे शरीर में स्थित है । 'ॐ' शब्द का उच्चारण करने से एक नई उर्जा तथा नई स्फुर्ति प्राप्त होती है । 'ॐ' अपने आपमें बहुत बड़ी शक्ति हैं । दुसरी शक्ति पहले से ब्रह्माण्ड में उपस्थित हैं' तथा एक शक्ति आपके अंदर विद्यमान हैं, जब ये तीनों शक्तियाँ आपस में टकराती हैं, तो मनुष्य के अंदर सुप्त शक्तियों को जागृत करने हेतु नई उर्जा प्राप्त होती है ।

वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध तथा जैन संप्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है । सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। सनातन धर्म के समस्त श्लोक और मंत्र इसी ओम " से आरम्भ होते हैं । मंत्र के रूप में मात्र "" भी पर्याप्त है।

ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- , , म । इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। ओम - ब्रह्मा की सृजनात्मक, विष्णु की रचनात्मक, महेश कि ध्वंसात्मक शक्ति और भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है। सृष्टि संचालन के तीन तत्व - ताप , ध्वनि और प्रकाश का प्राकट्य भी ॐ से माना गया है । ॐ के अक्षर -- मनुष्य की जागृत स्थिति, - स्वप्न स्थिति और म्- सुप्त स्थिति के प्रतीक है । ओम जीवन का महामंत्र माना जाता है ।

तंत्र शास्त्र के अनुसार, मनुष्य या योगी की ऊर्ध्व गति यात्रा में विभिन्न कारणों का परित्याग करने से धीरे - धीरे, उसकी पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है। "" ब्रह्मा का वाचक है और इसके उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "" विष्णु का वाचक हैं, इसके उच्चारण द्वारा उसका त्याग कंठ में होता है तथा "" रुद्र का वाचक है ओर उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है। तदनंतर ॐ में प्रयुक्त चन्द्र बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है । उच्चारण द्वारा उत्त्पन्न नाद- सदाशिवरूपी है, उसका त्याग ललाट से मूर्धा तक के स्थान में होता है। इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं। मूर्धा के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनंतर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है तथा त्याग हो ता है। इसके उपरांत कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रहप्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है। इसी को परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का परित्याग हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है।

उच्चारण की विधि

प्रातः उठकर पवित्र होकर, श्वास को सामान्य रखते हुए, आराम की स्थिति में बैठकर, तर्जनी उंगली और अंगूठा मिलाकर ज्ञान मुद्रा बना लें । इसके बाद पेट से " " हृदय से " " नाक से " " नाद और बिंदु की ध्वनि सहित - ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। यह उच्चारण उच्च स्वर में या मंद स्वर में, परन्तु ,बहुत लम्बा होना चाहिए । ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में भी बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार या जप माला से भी कर सकते हैं।

" " की महत्ता एवं उच्चारण से लाभ

इस मंत्र के जाप से सभी मनोरथों की सिद्धि होती है एवं यह भोग और मोक्ष दोनों को प्रदान करने वाला वाला है । इस मंत्र के उच्चारण से जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु तथा स्पंदन के सम्मिलित प्रभाव से निकलने वाली ध्वनि, शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है जिससे समस्त प्रकार कि व्याधियों और रोगाणुओं का शमन होता है । इस मंत्र का जाप करने वाले के पास बाधाएं भी नहीं आती तथा व्यक्ति में आत्मविश्वास की वृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है । इसके उच्चारण से शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलती है , मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं, दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होता है । इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं।


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